नरसिंहपुर। द्वारिका और ज्योर्तिमठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वतीजी आज ब्रह्मलीन हो गए। नरसिंहपुर के झोतेश्वर स्थित परमहंसी आश्रम में उन्होंने दोपहर साढ़े 3 बजे अंतिम सांस ली। बताया जा रहा है कि वे काफी दिन से अस्वस्थ चल रहे थे। गोलोक गमन के बाद के उनके अंतिम दर्शन के लिए शिष्यों की भीड़ लग गई।
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री ने शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती के देहावसान पर व्यक्ति किया गहरा दुख
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री श्री पुष्कर सिंह धामी ने सनातन धर्म के ध्वजवाहक पूज्य शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती जी के देहावसान पर गहरा दुःख व्यक्त किया है। मुख्यमंत्री ने ईश्वर से पुण्यात्मा को अपने श्रीचरणों में स्थान देने की प्रार्थना की है। उन्होंने कहा कि स्वामी जी का निधन संत समाज के साथ ही पूरे राष्ट्र के लिए एक अपूरणीय क्षति है।
शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती जी 99 साल के थे। श्री स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती जी दो मठ द्वारका और ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य थे। स्वरूपानंदजी आजादी की लड़ाई में जेल भी गए थे। इससे पहले शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती की तबीयत बिगड़ने की सूचना मिलते ही हाल-चाल जानने के लिए भक्तों- अनुयायियों का तांता लगना शुरू हो गया था।

शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती का जन्म 2 सितम्बर 1924 को मध्य प्रदेश राज्य के सिवनी जिले के दिघोरी गांव में ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम धनपति उपाध्याय और मां का नाम गिरिजा देवी थी। इनका बच्चन का नाम पोथीराम उपाध्याय था। नौ वर्ष की उम्र में ही उन्होंने घर छोड़ कर धर्म यात्रायें प्रारम्भ कर दी थीं। इस दौरान वह काशी पहुंचे और यहां उन्होंने ब्रह्मलीन श्री स्वामी करपात्री महाराज वेद-वेदांग, शास्त्रों की शिक्षा ली। यह वह समय था जब भारत को अंग्रेजों से मुक्त करवाने की लड़ाई चल रही थी। जब 1942 में अंग्रेजों भारत छोड़ो का नारा लगा तो वह भी स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े और 19 साल की उम्र में वह ‘क्रांतिकारी साधु’ के रूप में प्रसिद्ध हुए। इसी दौरान उन्होंने वाराणसी की जेल में नौ और मध्यप्रदेश की जेल में छह महीने की सजा भी काटी थी।
वे करपात्री महाराज की राजनीतिक दल राम राज्य परिषद के अध्यक्ष भी थे। 1950 में शारदा पीठ शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती से दण्ड-सन्यास की दीक्षा ली और स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती नाम से जाने जाने लगे। 1950 में वे दंडी संन्यासी बनाए गए और 1981 में उन्हें शंकराचार्य की उपाधि मिली।




